शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

कुछ चतुष्पदियाँ

मै भटका ज़िन्दगी भर ,हमेशा दुविधा रही
सुविधा थी सुख नहीं था ,सुख मिला सुविधा गई!
राह अपनी तू चला चल ,किसी से भी पथ न पूछ
पैगम्बरों में भी ,आदि से ,यहाँ पर स्पर्धा रही !!
रह गया स्तब्ध मौन ,जीत गयी आज अभिव्यक्ति
चढ़ रहा चिंता चिंतन ,जीत गयी अंध भक्ति !
अतीत का ये प्रश्न मुझे ,आज तक भी काँचता है
कुरुक्षेत्र में सत्य जीता ,अथवा जीती थी शक्ति !!
ज़िन्दगी जी रहा या  ढो रहा हूँ मै
उम्र के साथ जग में खो रहा हूँ मै !
शांत एकांत में व्यथित जीवन प्रश्नो से ,
मुस्कान अधरों पर ,ह्रदय से रो रहा हूँ मैं !!(नवीनतम पुस्तक"काव्य कनिका " से )




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